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अहङ्कार


अधिक भयंकर और कोई वस्तु नहीं है। अब यह मनोवेगामात हो जाते हैं तो हमारीदशा मतवालों की सी हो जाती है। हमारे पैर लड़खड़ाने लगते हैं और ऐसा जान पड़ता है कि, अब औंधे मुँह गिरे! कभी-कमी इन मनोवेगों कोवशीभूत होकर हम पातक सुख भोग में भग्त हो जाते हैं। लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि आत्म-वेदना और इन्द्रियों की अशान्ति हमें नैराश्य नद में दुबा देती हैं जो सुखभोग से कहीं सर्वनाशक है। बन्धुवर, मैं एक महान् पापी प्राणी हूँ लेकिन मुझे अपने दीर्घजीवन काल में यह अनुभव हुआ है कि योगी के लिए इस मलिनता से बड़ा और कोई शत्रु नहीं है। इससे मेरा अभिप्राय उस असाध्य उदासीनता और क्षोभ से है जो कुहरे की भांति आत्मा पर परदा डाले रहती है और ईश्वर की ज्योति को आत्मा तक नहीं पहुंचने देती। मुक्ति मार्ग में इससे बड़ी और कोई बाधा नहीं है, और असुरराज की सबसे बड़ी जीत यही है कि वह एक साधु पुरुष के हृदय में सुध और मलिन विचार अंकुरित कर दे। यदि वह हमारे ऊपर मनोहर प्रलोभनों ही से आक्रमण करता तो बहुत भय की बात न थी। पर शोक!, वह हमें क्षुब्ध करके बाजी मार ले जाता है। पिता एन्टोनी को कभी किसी ने उदास या दुखी नहीं देखा। उनका मुखड़ा नित्य फूल के समान खिला रहता था। उनके मधुर मुसक्यान ही से भक्तों के चित्त की शांति मिलती थी। अपने शिष्यों में कितने प्रसन्न-वितरहते थे। उनकी मुखकान्ति कभी मनोमालिन्य से धुंधली नहीं हुई। लेकिन हाँ, तुम किस प्रस्ताव की चर्चा कर रहे थे।

पापनाशी बन्धु पालम, मेरे प्रस्ताव का उद्देश्य केवल ईश्वर के महात्म्यको उज्ज्वल करना है। मुझे अपने सपरामर्श से अनुगृहीत कीजिए, क्योंकि आप सर्वश हैं और पाप की बाते कभी आपको सर्शनहीं किया!