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अहङ्कार


(सिकन्दर) के बसाये हुए नार में पहुँच लाऊँ। बह भूख, प्यास और थकन की कुछ परवाह न करते हुए प्रातः काल से सूर्य्यास्त तक चलता रहा। जब वह नदी के समीप पहुँचा तो सूर्य क्षितिज की गोद में आश्रय ले चुका था और नदी का रस जल कंचन और अग्नि के पहाड़ों के बीच में लहरें मार रहा था।

वह नदी के तटवर्ती मार्ग से होता हुआ चला। जब भूख, लगती किसी झोपड़ी के द्वार पर खड़ा होकर ईश्वर के नाम पर कुछ मांग लेता। तिरस्कारों, उपेक्षाओं, और कटुवचनों को प्रसन्नता से शिरोधार्य करता था। साधु को किसी से अमर्ष नहीं होता। इसे न डाकुओं का मय था, न वन के जन्तुओं का, लेकिन सब किसी गाँव या नगर के समीप पहुँचता तो कतरा कर निकल जाता। वह डरता था कि कहीं बालवृन्द उसे खिमिचौनी खेलते हुए न मिल जायें अथवा किसी कुयें पर पानी भरनेवाली रमणियों से सामना न हो जाय जो घड़ों को उतारकर उससे हास्य परिहास्य कर बैठें। योगी के लिये यह सभी शंका की बातें हैं, न जाने का भूत पिशाच उसके कार्य में विघ्न डाल दे। उसे धर्म-ग्रन्थों में यह पदकर भी शंका होती है कि भगवान नगरों की यात्रा करते थे और अपने शिष्यों के साथ भोजन करते थे। योगियों की प्रापरण-वाटिका के पुष्प जितने सुन्दर हैं उतने ही कोमल भी होते हैं, यहाँ तक कि सांसारिक व्यवहार का एक झोंका भी उन्हें झुलसा सकता है, उनकी मनोरम शोमा को नष्ट कर सकता है। इन्हीं कारणों से पापनाशी नगरों और वस्तियों से अलग अलग रहता था कि अपने स्वजातीय भाइयों को देखफर उसका चित्त उनकी ओर आकर्षितान हो जाय।

वह निर्जनभागों पर चलताथा सन्यासमय जब पक्षियोंका मधुर कलरव सुनाई देवा और समीर के मन्द झोंके आने लगते तो