पृष्ठ:अहंकार.pdf/३६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
१५
अहङ्कार


अपने कन्टोपको आँखों पर खींच लेता कि उसपर प्रकृति-सौन्दर्य काजादू न चल जाय। इसके प्रतिकूल भारतीय भूपि-महात्मा प्रकृतिसौन्दर्य के रसिक होते थे। एक सप्ताह की यात्रा के बाद वह 'सिलसिल' नाम के एक स्थान पर पहुँचा। वहाँ नील नदो एक सकरी घाटी में होकर वहती है और उसके तट पर पर्वत श्रेणी की दुहरी मेंड-सी बनी हुई है। इसी स्थान पर मिनिटासी अपने पिशाच पूजा के दिनों में मूर्तियाँ अंकित करते थे। पापनाशी को एक वृहदाकारा*[१] स्फिंक्स ठोस पत्थर का बना हुआ दिखाई दिया। इस भय से कि इस प्रतिमा में अब भी पैशाचिक विभूतियों संचित न हों, पापनाशी ने सलीन का चिह बनाया और प्रभुमसीह का स्मरण किया। तत्क्षण उसने प्रतिमा के एक कान में से एक चमगादड़ को उड़ कर भागते देखा। पापनाशी को विश्वास हो गया कि मैंने उस पिशाच को भगा दिया जो शताब्दियों से इस प्रतिमा में आ जमाये हुये था। उसका धर्मोत्साह बढ़ा, उसने एक पत्थर उठा कर प्रतिमा के मुख पर मारा। चोट लगते ही प्रतिमा का मुख इतना उदास हो गया कि पापनाशी को उस पर दया आ गई। उसने उसे सम्बोधित करके कहा-हे प्रेत, तू भी उन प्रेतों की भाँति प्रभु पर ईमान ला जिन्हे प्रातःस्मरणीय ऐन्टोनी ने वन में देखा था, और मैं ईश्वर, उसके पुत्र और अलख ज्योति के नाम पर तेरा उद्धार करूंगा। यह वाक्य समाप्त होते ही स्फिक्स के नेत्रों से अग्निज्योति प्रस्फुटित हुई, उसकी पलके कांपने लगी और उसके पापाण-मुख से 'मसीह की ध्वनि निकली, मानो पापनाशी के शब्द प्रतिध्वनित हो गये हों। अतएव पापनाशी ने दाहिना हाथ उठाकर उस मूर्ति को आशीर्वाद दिया

  1. (एक कल्पित जीव जिसका अंग सिंह का होता है और मुख स्त्री का।)