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अहंङ्कार

 पापनाशी ने अपवाद किया--तो तुम्हारे मतानुसार संसार में कोई वस्तु स्थायी नहीं है। तुम उस थके हुए कुत्ते की भाँति हो, जो कीचड़ में पड़ा सा रहा है-अज्ञान के अन्धकार में अपना जीवन नष्ट कर रहे हो। तुम प्रतिमावादियों से भी गये-गुजरे हो।

मित्र, कुत्तों ओर ऋषियों का अपमान करना समान ही व्यर्थ है। इत्ते क्या हैं, हम यह नहीं जानते। हमको किसी वस्तु का लेशमात्र भी ज्ञान नहीं।

'तो क्या तुम भ्रांतिवादियों में हो? क्या तुम उस नियुद्धि, कर्हीमन सम्प्रदाय मे हो, जो सूर्य के प्रकाश में, और रात्रि के अन्धकार में, काई भेद नहीं कर सकते।

हाँ मित्र, मैं वास्तव मे भ्रमवादी हूँ। मुझे इस सम्प्रदाय में शान्ति मिलती है चाहे तुम्हें हास्यास्पद जान पड़ता हो। क्योंकि एक ही वस्तु भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न रूप धारण, कर लेती है। इन विशाल मीनारों ही को देखो प्रभाव के पीतप्रकाश में वह केशर के कंगूरों-से देख पड़ते हैं। सन्ध्या समय सूर्य की ज्योति दूसरी ओर पड़ती है और यह काले-काले त्रिभुजों फे सहश दिखाई देते हैं। यथार्थ में किस रंग के हैं, इसका निश्चय कौन करेगा? बादलों ही को देखो वह कभी अपनी दमक से कुन्दन को लजाते हैं, कमो अपनी कालिमासे अन्धकार को मात करते है विश्व के सिवाय और कौन ऐसा निपुण है जो उनके विविध आवरणों को छाया उतार सके? कौन कह सकता है कि वास्तव में इस मेषसमूह का क्या रंग है? सूर्यमुझे ज्योतिर्मय दीखता किंतु मैं उसके तत्व को नहीं जानता। मैं आग को जलते हुते देखता हूँ। पर नहीं जानता कि कैसे जलती है और क्यों जलती है। मित्रवर, तुम ध्यर्थ मेरी उपेक्षा करते हो। लेकिन मुझे इसकी भी चिंता नहीं कि कोई मुझे क्या सममाना है, मेरा मान करता है या निन्दा।'