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अहंङ्कार

पापनाशी ने फिर शंका की-

'अच्छा एक बात और बता दो तुम इस निर्वन वन में प्यावं और छुहारे खाकर जीवन व्यतीत करते हो? तुम इतना कष्ट क्यों भोगते हो! तुम्हारे ही समान मैं भी इन्द्रियों को दमन करता हूँ और एकान्त में रहता हूँ। लेकिन मैं यह सब कुछ ईश्वर को प्रसन्न करने के लिए, स्वर्गीय आनन्द भोगने के लिए करता हूँ यह एक मार्जनीय उद्देश्य है, परलोक सुख के लिये ही इस लोक में कष्ट उठाना बुद्धिसंगत है। इसके प्रतिकूल व्यर्थ बिना किसी उद्देश्य संयम और व्रत का पालन करना, तपस्या से शरीर और रक्तको घुलाना निरी मूर्खता है। अगर मुझे विश्वास न होता-हे अनादि ज्योति, इस दुर्वचन के लिए क्षमा कर-अगर मुझे उस सत्य पर विश्वास है, जिसका ईश्वर ने ऋषियों द्वारा उपदेश किया है, जिसका उसके परमप्रिय पुत्र ने स्वयं आचरण किया है, जिसकी धर्मसमानों ने और आत्मसमर्पण करनेवाले महान् पुरुषों ने साक्षी दी है अगर मुझे पूर्ण विश्वास न होता कि आत्मा की मुक्ति के लिये, शारीरिक संयम और निग्रह परमावश्यक है। यदि मैं भी तुम्हारी ही तरह अलेय विषयों से अनभिज्ञ होता, तो मैं तुरंत सांसारिक मनुष्यों में आकर मिल जाता, धनोपार्जनकरता, संसार में सुखी पुरुषों की भांति सुखमोग करता और विलासदेवी के पुजारियों से कहता-आओ मेरे मित्रों, मद के प्याले भर मर पिलाओ फूलों के सेज-बिछाओ, इत्र और पुखेल की नदियां बहार लेकिन तुम कितने बड़े मूर्ख हो कि व्यर्थ ही इन-सुखों को त्याग रहे हो, तुम बिना किसी लाभ की आशा के यह सब कष्ट उठाते हो। देते हो, मगर पाने की आशा नहीं रखते। और नकल करते हो हम तपस्वियों की, जैसे अबोध धन्दर दीवार पर रंग पोत कर अपने मन में समझता है कि मैं चित्रकार हो गया इसका