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अहंङ्कार

पापनाशी को मानव-चरित्र का पूरा ज्ञान था। वह समझ गया कि इस मनुष्य पर ईश्वर की कृपादृष्टि नहीं हुई है और इसकी आत्मा के उद्धार का समय अभी दूर है। उसने टिमाक्लीज का खण्डन न किया कि कहीं उसकी उद्धारक शक्ति घातक न बन जाय क्योंकि विधर्मियों से शास्त्रार्थ करने मे कभी कभी ऐसा हो जाता है कि उनके उद्धार के साधन उनके अपकार के मन्त्र बन जाते है। अतएव जिन्हें सद्ज्ञान प्राप्त है उन्हे बड़ी चतुराई से उसका प्रचार करना चाहिये। उसने टिमाक्लीज़ को नमस्कार किया और एक लम्बी साँस खीचकर रात ही को फिर अपनी यात्रा पर चल पड़ा।

सूर्य्योदय हुआ तो उसने जल-पक्षियों को नदी के किनारे एक पैर पर खड़े देखा। उनकी पीली और गुलाबी गर्दनों का प्रति- बिम्ब जल मे दिखाई देता था। कोमल बेत वृक्ष अपनी हरी-हरी पत्तियों को जल पर फैलाये हुये थे। स्वच्छ आकाश मे सारसों का समूह त्रिभुज के आकार में उड़ रहा था, और झाड़ियों में छिपे हुये वगुलों की आवाज सुनाई देती थी। जहाँ तक निगाह जाती थी नदी का हरा जल हल्कोरे मार रहा था। उजले पाल वाली नौकायें चिड़ियों को भाँति तैर रही थीं, और किनारों पर जहाँ तहाँ श्वेतभवन जगमगा रहे थे। तटों पर हलका कुहरा छाया हुआ था और द्वीपों के आड़ से जो खजूर, फूल और फल के वृक्षों से ढके हुए ये बत्तख, लालसर, हारिल आदि चिड़ियाँ कलरव करती हुई निकल रही थीं। बाये ओर मरुस्थल तक हरे-हरे खेतों और वृत्त-पुंजों की शोभा आँखों को मुग्ध करदेती थी। पके हुए गेहूॅ के खेतों पर सूर्य की किरणें चमकरही थीं और भूमि से भीनी-भीनी सुगंधि के झोंके आते थे। यह प्रकृति-शोभा देखकर पापनाशी ने घुटनों पर गिरकर ईश्वर की वन्दना की—भगवान्,