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अहङ्कार

स्तम्भ युवतियों की भाँति सुन्दर थे। दीवारों पर यूनान के सर्व श्रेष्ठ ऋषियों की प्रतिमाएँ शोभा दे रही थीं। पापनाशी ने फलातूँ, सुक़रात, अरस्तू, एपिक्युरस और जिनो की प्रतिमायें पहचानी और मन में कहा—इन मिथ्या-भ्रम में पड़नेवाले मनुष्यों की कीर्तियों को मूर्तिमान करानामूर्खता है। अब उनके मिथ्याविचारों की कलई खुल गई, उनकी आत्मा अब नरक में पड़ी सड़ रही है; और यहाँ तक कि फलातूँ भी, जिसने संसार को अपनी प्रगल्भता से गुञ्जारित कर दिया था, अब पिशाचों के साथ तू-तू मैं-मैं कर रहा है। द्वार पर एक हथौड़ी रस्त्री हुई थी। पापनाशी ने द्वार खट-खटाया। एक गुलाम ने तुरत द्वार खोल दिया और एक साधु को द्वार पर खड़े देखकर कर्कश-स्वर में बोला—दूर हो यहाँ से, दूसरा बार देख, नहीं तो मैं डंडे से खबर लूँगा।

पापनाशी ने सरल भाव से कहा—मैं कुछ मिक्षा माँगने नहीं आया हूँ। मेरी केवल यही इच्छा है कि मुझे अपने स्वामी निसियास के पास ले चलो।

गुलाम ने और भी बिगड़कर जवाब दिया—मेरा स्वामी तुम जैसे कुत्तों से मुलाक़ात नहीं करता!

पापनाशी—पुत्र जो मैं कहता हूँ वह करो, अपने स्वामी से इतना ही कह दो कि मैं उससे मिलना चाहता हूॅ।

दरबान ने क्रोध के आवेग में आकर कहा—चला जा, यहाँ से भिखमंगा कहीं का! और अपनी छड़ी उठाकर उसने पाप- नाशी के मुँह पर जोर से लगाई। लेकिन योगी ने छाती पर हाथ बांधे, बिना जरा भी उत्तेजित हुए, शांत भाव से यह चोट सह जी और तब विनयपूर्वक फिर वही बाद कही—पुत्र, मेरी याचना स्वीकार करो।

दरबान ने चकित होकर मन में कहा—यह तो विचित्र आदमी