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अहङ्कार

है जो मार से भी नहीं डरता और तुरन्त अपने स्वामी से पापनाशी का संदेशा कह सुनाया।

निसियास भभी स्नानागार से निकला था। दो युवतियाँ उसकी देह पर तेल की मालिश कर रही थीं। वह रूपवान पुरुष था, बहुत ही प्रसन्नचित्त । उसके मुख पर कोमल व्यगकी आमा थी। योगी को देखते ही वह उठ खड़ा हुआ और हाथ फैलाये हुए उसकी ओर बढ़ा-आमओ मेरे मित्र, मेरे बधु, मेरे सहपाठी, श्राओ। मै तुम्हें पहचान गया यधपि तुम्हारी सूरत इस समय आदमियों की-सी नहीं, पशुओं की-सी है। आओ मेरे गले से जग जाओ। तुम्हे वह दिन याद है जब हम व्याकरण, अलंकार और दर्शन साथ पढ़ते थे? तुम उस समय भी तीन और उद्दण्ड प्रकृति के मनुष्य थे पर पूर्ण सत्यवादी । तुम्हारी वृप्ति एक चुटकी भर नमक में हो जाती थी, पर तुम्हारी दानशीलता का धारापार न था। तुम अपने जीवन की भांति अपने धन की भी कुछ परवाह न करते थे। तुम मे उस समय भी थोड़ी-सी मक थी जो बुद्धि की कुशामता का लक्षण है। तुम्हारे परित्र की विचित्रता मुझे बहुत भली मालूम होती थी।

आज तुमने दस वर्षों के बाद दर्शन दिये हैं। हृदय से मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। तुमने वन्यजीवन को त्याग दिया और ईसाइयों की दुर्मति को तिलांजलि देकर फिर अपने सनातन धर्म पर आरूढ़ हो गये, इसके लिए तुम्हें बधाई देता हूँ। मैं सुफेद पत्थर पर इस दिन का स्मारक बनाऊँगा।

यह कहकर उसने उन दोनों युवती सुन्दरियों को आदेश दियामेरे प्यारे मेहमान के हाथों पैरों और दाढ़ी में सुगन्ध लगाओ।

युवतियाँ हँसी और तुरन्त एक थाल, सुगन्ध को शीशी और आईना लाई। लेकिन पापनाशी ने कठोर स्वर से उन्हे मना किया और आँखें नीची कर ली कि उनपर निगाह न पड़ जाय, क्योंकि