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अहङ्कार


लेकिन शोक ! यह सब फेवत रोगपीड़ित मनुष्यों के स्वप्न हैं !

उसने तब अपने मेहमान को एक हाथीदांत की कुरसी पर पवरदस्ती बैठाया और खुद भी बैठ गया। पापनाशी ने इन पुस्तकों को देख कर त्योरियाँ चढ़ाई और बोला-इन सब को अग्नि की भेट कर देना चाहिए। निसियास घोला नहीं प्रिय मित्र, यह घोर अनर्थ होगा क्योंकि रुग्ण पुरुषों के स्वम कभीकमी बड़े मनोरंजक होते हैं। फिर यदि हम इन कल्पनाओं और स्वप्नों को मिटा दें तो संसार शुष्क और नीरस हो जायगा और हम सब विचार शैथिल्य के गढ़े मे जा पड़ेगे।

पापनाशी न उसी ध्वनि में कहा-यह सत्य है कि मूर्तिवादियों के सिद्धान्त मिथ्या और भ्रान्तिकारक हैं। किन्तु ईश्वर ने, जो सत्य का रूप है,मानवशरीर धारण किया और अलौकिक विभूलियों द्वारा अपने को प्रगट किया और हमारे साथ रह कर हमारा कल्याण करता रहा। निसियास न उत्तर दिया-प्रिय पापनाशी, तुमने यह बात मच्छी कही कि ईश्वर ने मानवशरीर धारण किया । तब तो वह मनुष्य ही हो गया। लेकिन तुम ईश्वर और उसके रूपान्तरों का समथन करन तो नहीं आये बतलाओ, तुम्हें मेरी सहायता तो न चाहिए? मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ?

पापनाशी वाला-बहुत कुछ ! मुझे ऐसा ही सुगन्धित एक बस्त्र दे दो जैसा तुम पहने हुए हो। इसके साथ सुनहरे खड़ाऊँ और एक प्याला तेल भी.दे दो कि मैं अपनी दाढ़ी और बालों में चुपड़ । मुझे एक हजार स्वर्ण मुद्राओं की एक थैली भी चाहिए निसियास ! मैं ईश्वर के नाम पर और पुरानी मित्रता के नाते तुमसे यही सहायता मांगने आया हूँ।

निसियास ने अपना सर्वोत्तम वस्त्र मँगवा दिया। उस पर