पृष्ठ:अहंकार.pdf/५७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३६
अहङ्कार


सिवाय और कुछ नजर न आता था। भूमि कितने ही स्थलों पर फट गई थी और उसमे से भाफ की लपट निकल रही। जन्तु ने पापनाशी को धीरे से उतार दिया और कहा-देखो!

पापनाशी ने एक खोह के किनारे मुककर नीचे देखा। भाफ की नदी पृथ्वी के अंतस्थल में, दो काले-काले पर्वतों के बीच से बह रही थी। वहाँ धुंधले प्रकाश मे नरक के दूत पापामाओं को कष्ट दे रहे थे। इन आत्माओं पर उनके मृत शरीर का होका आवरण था, यहाँ तक कि वह कुछ वस्त्र भी पहने हुए थे। ऐसे दारुण कष्टों में भी यह बात्माएँ बहुत दुःखी न जान पाती थी।, उनमें से एक जो लम्बी, गौरवर्ण आँखे बन्द किये हुएथी, हाथ में एक तलवार, लिए,जा रही थी। उसके मधुर स्वरों से समस्त मरुभूमि गूंज रही थी। यह देवताओं और शूर-बी की विरुवावली गा रही थी। छोटे-छोटे हरे रंग के दैत्य उसका मीठा और कंठ को लाल लोहे की सलाखों से छेद रहे थे। यह प्रमर कवि होमर की प्रविछाथा थी । वह इतना कष्ट झेलकर भी पीने से बाज न आवी. थी। उसके समीप ही अनकगोरस जिस सिर के बाल गिर गये थे धूल में परकाल से शक्ले बना रहा था एक दैत्या उसके कानों में खौलता हुआ तेल डाल रहा था, पर उसकी एकाग्रता को भंग न कर सकता था। इनके अतिरिक्त पापनाशी को और कितनी ही आत्मायें दिखाई दी जो जलती हुई नदी के किनारेबैठी हुई उसी भांति पठन-पाठन, वाद-विवाद उपासनाध्यान में मग्न थी जैसे-यूनान के गुरुकुलों में गुरु-शिष्य किसी वकी छाया में बैठकर किया करते थे। वृद्ध दिमारलीज ही सबसे अलग-था और धातिवादियों की भांति सि, भारएक दैत्य उसकी आँखों के सामने एक मशाल हिला हा था, किन्तु टिमातीश पाखें ही न खोलवा.था।