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अहङ्कार

चेहरे पहनकर कवियों की रचनायें उच्चस्वर से गाया करते थे। अब तो वह गूगों की भांति अभिनय करते हैं। वह पुराने सामान भी ग़ायब हो गये। न तो वह चेहरे रहे जिनमें आवाज को फैलाने के लिए धातु की जीभ बनी रहती थी, न वह ऊँचे खड़ाऊँ ही रह गये जिन्हें पहनकर अभिनेतागण देवताओं की तरह लम्बे हो जाते थे, न वह ओजस्विनी कवितायें रही और न वह मर्मस्पर्शी अभिनयचातुर्या। अब तो पुरुषों की जगह रंगमंच पर स्त्रियों का दौर दौरा है, जो बिना संकोच के खुले मुँह मंच पर आती हैं। उस समय के यूनान निवासी स्त्रियों को स्टेज पर देखकर न जाने दिनमें क्या कहते। स्त्रियों के लिए जनता के सम्मुख मंच पर आना घोर लना की बात है। हमने इस कुप्रथा को स्वीकार करके अपने आध्यात्मिक पतन का परि- चय दिया है। यह निर्विवाद है कि स्त्री पुरुष का शत्रु और मान- वजाति का कलंक है।

पापनाशी ने इसका समर्थन किया—बहुत सत्य कहते हो। स्त्री हमारी प्राणघातिका है। उससे हमे कुछ आनन्द प्राप्त होता है और इसलिए उससे सदैव डरना चाहिए।

उसके साथी ने जिसका नाम डोरियन था, कहा—स्वर्ग के देवताओं की शपथ खाता हूँ, स्त्री से पुरुष को आनन्द नहीं प्राप्त होता, बल्कि चिन्ता, दुख और अशान्ति। प्रेम ही हमारे दारुणतम कष्टों का कारण है। सुनो, मित्र, जब मेरी तरुणावस्था थी तो मैं एक द्वीप की सैर करने गया था और वहाँ मुझे एक बहुत बड़ा मेहदी का वृक्ष दिखाई दिया जिसके विषय में यह दंतकथा प्रचलित है कि 'फ़ीडरा' जिन दिनों 'हिप्योलाइट' पर आशिक थी तो वह विरह- दशा मे इसी वृक्ष के नीचे बैठी रहती थी और दिल बहलाने के लिए अपने बालों की सूइयां निकाल कर इन पत्तियों में चुभाया करती