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अहङ्कार

ग़ोल नदी में तैरा करते थे। वह उस विलास-प्रिय और रँगीले नगर के राग-रंग में दिल खोलकर माग लेने लगी। वह नित्य रंगशालाओं मे आती जहाँ चतुर गवैये और नर्तक देश देशा- न्तरों से आकर अपने करतब दिखाते थे, और उत्तेजना के भूखे दर्शक-वृन्द वाह वाह की ध्वनि से आसमान सिर पर उठा लेते थे।

थायस गायनों, अभिनेताओं, विशेषतः उन खियों के चाल- ढाल को बड़े ध्यान से देखा करती थी जो दुःखान्त नाटकों में मनुष्य से प्रेम करनेवाली देवियों या देवताओं से प्रेम करने वाली स्त्रियों का अभिनय करती थीं। शीघ्र ही उसे वह लटके मालूम हो गये जिनके द्वारा यह पात्रियाँ दर्शकों का मन हर लेती थीं, और उसने सोचा, क्या मैं जो उन सबों से रूपवती हूँ, ऐसा ही अभिनय करके दर्शकों को प्रसन्न नहीं कर सकती? वह रंग- शाला के व्यवस्थापक के पास गई और उससे कहा कि मुझे भी इस नाट्यमडली मे सम्मिलित कर लीजिए। उसके सौन्दर्य ने उसकी पूर्व शिक्षा के साथ मिलकर उसकी सिफारिश की। व्यवस्थापक ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली और वह पहली बार रंग-मंच पर आई।

पहले दर्शकों ने उसका बहुत आशाजनक स्वागत न किया। एक तो वह इस काम में अभ्यस्त न थी, दूसरे उसकी प्रशंसा के पुल बाँधकर जनता को पहले ही से उत्सुक न बनाया गया था। लेकिन कुछ दिनों तक गौण चरित्रों का पार्ट खेलने के बाद उसके यौवन ने वह हाथ पांव निकाले कि सारा नगर लोट-पोट हो गया । रंगशाला में कहीं तिल रखने भर की जगह न बचती। नगर के बड़े बड़े हाकिम, रईस, अमीर, लोकमत के प्रभाव से रंगशाला में आने पर मजबूर हुए। शहर के चौकीदार, पल्लेदार, मेहतर, घाट के मजदूर, दिन-दिन भर उपवास करते थे कि