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अहङ्कार

संत थियोडोर की जयन्ती मना रहे हैं? उनका जीवन पवित्र था। उन्होंने अपने को धर्म की बलि वेदी पर चढा दिया, और इसी- लिए हम श्वेत वस्त्र पहन कर उनकी समाधि पर लाल गुलाब के फूल चढ़ाने आये हैं।

यह सुनते ही थायस घुटनों के बल बैठ गई और ज़ोर से रो पड़ी। अहमद की अर्धविस्मृत स्मृतियाँ जागृत हो गईं। उस दीन, दुखी, अभागे प्राणी की कीर्ति आज कितनी उज्ज्वल है! उसके नाम पर दीपक जलते हैं, गुलाब की लपटें आती हैं, हवन के सुगन्धित धुएँ उठते हैं, मीठे स्वरों का नाद होता है, और पवित्र आत्मायें मस्तक झुकाती हैं। थायस ने सोचा—

'अपने जीवन में वह पुण्यात्मा था, पर अब वह पूज्य और उपास्य हो गया है। वह अन्य प्राणियों की अपेक्षा क्यों इतना श्रद्धास्पद है? यह कौन-सी अज्ञात वस्तु है जो धन और भोग से भी बहुमूल्य है?

वह आहिस्ता से उठी और उस संत की समाधि की ओर चली जिसने उसे गोद में खेलाया था। उसकी अपूर्व आँखों में भरे हुए अश्रु-बिन्दु दीपक के आलोक में चमक रहे थे। तब वह सिर झुकाकर, दीन भाव से, कब्र के पास गई और उस पर अपने अधरों से अपनी हार्दिक श्रद्धा अंकित कर दी—उन्हीं अधरों से जो अगणित तृष्णाओं का क्रीडा क्षेत्र थे।

जब वह घर आई वो निसियास को बाल सँवारे, वस्त्रों में सुगन्ध मले, कबा के बन्द खोले बैठे देखा। वह उसके इन्तज़ार में समय काटने के लिए एक नीति-अथ पढ़ रहा था। उसे देखते ही वह बाँहें खोले उसकी ओर बढ़ा और भृदुहास्य से बोला— कहाँ गई थीं, चंचला देवी? तुम जानती हो तुम्हारे इन्तजार में बैठा हुआ, मैं इस नीति-ग्रंथ में क्या पढ़ रहा था? नीति के