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अहङ्कार

भूल न जायें। आओ, हम संसार से छल करें, छल करके उस सुख छीन लें—प्रेम में सब कुछ भूल जायें!

लेकिन उसने उसे पीछे हटा दिया और व्यथित हो कर बोली—तुम प्रेम का मर्म नहीं जानते। तुमने कभी किसी से प्रेम नहीं किया। मैं तुम्हें नहीं चाहती, ज़रा भी नहीं चाहती। यहाँ से चले जायो, मुझे तुमसे घृणा होती है। अभी चले जाओ, मुझे तुम्हारी सूरत से नफरत है। मुझे उन सब प्राणियों से घृणा है जो धनी हैं, आनन्दभोगी हैं। जाओ, जाओ। दया और प्रेम उन्हीं में है जो अभागे हैं। जब मैं छोटी थी तो मेरे यहाँ एक हव्शी था जिसने सलीज पर जान दी। वह सजन था, वह जीवन के रहस्यों को जानता था। तुम उसके चरण धोने योग्य भी नहीं हो । चले जाओ। तुम्हारा लियों का-सा श्रृंगार मुझे एक आँख नहीं भाता। फिर मुझे अपनी सूरत मत दिखाना।

यह कहते-कहते वह फ़र्श पर मुँह के बल गिर पड़ी और सारी रात रोकर काटी। उसने संकल्प किया कि मैं सन्त थियो- डोर की भाँति दीन और दरिद्र दशा में जीवन व्यतीत करूँगी।

दूसरे दिन वह फिर उन्हीं वासनाओं में लिप्त होगई जिनकी उसे चाट पड़ गई थी। वह जानती थी कि उसकी रूप-शोभा अभी पुरे तेज़ पर है पर स्थायी नहीं, इसीलिए इसके द्वारा जितना सुख और जितनी ख्याति प्राप्त हो सकती थी उसे प्राप्त करने के लिए वह अधीर हो उठी। थियेटर में जहाँ वह पहले की अपेक्षा और देर तक बैठकर पुस्तकावलोकन किया करती। वह कवियों, मूर्ति- कारों और चित्रकारों की कल्पनाओं को सजीव बना देती थी। विद्वानों और तत्वज्ञानियों को उसकी गति, अंगविन्यास और उस प्राकृतिक माधुर्य की झलक नज़र आती थी जो समस्त संसार में व्यापक है और उनके विचार में ऐसी अपूर्व शोमा स्वयं एक