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अहङ्कार

पवित्र वस्तु थी। दीन, दरिद्र, मूर्ख लोग उसे एक स्वर्गीय पदार्थ समझते थे। कोई किसी रूप में उसकी उपासना करता था, कोई किसी रूप में। कोई उसे भोग्य समझता था, कोई स्तुत्य, और कोई पूज्य। किन्तु इस प्रेम, भक्ति और श्रद्धा की पात्री होकर भी वह दुखी थी, मृत्यु की शंका उसे अब और भी अधिक होने लगी। किसी वस्तु से उसे इस शंका से निवृत्ति न होती। उसका विशाल भवन और उपवन भी, जिनकी शोभा आश्वस्थ थी और जो समस्त नगर में जनश्रुति बने हुए थे, उसे आश्वस्थ करने में असफल थे।

इस उपवन में ईरान और हिन्दुस्तान के वृक्ष थे जिनके लाने और पालने में अपरिमित धन व्यय हुआ था। उनकी सिंचाई के लिए एक निर्मल जलधारा बहाई गई थी। समीप ही एक झोल बनी हुई थी जिसमें एक कुशल कलाकार के हाथों सजाये हुए स्तम्भ-चिन्हों और कृत्रिम पहाड़ियों तथा तट पर की सुन्दर मूर्तियों का प्रतिबिम्ब दिखाई देता था। उपवन के मध्य में 'परियों का कुंज' था। यह नाम इसलिए पड़ा था कि उस भवन के द्वार पर तीन पूरे क़द की स्त्रियों की मूर्तियाँ खड़ी थीं। वह सशक्त होकर पीछे ताक रही थी कि कोई देखता न हो। मूर्तिकार ने उनकी चितवनों द्वारा मूर्तियों में जान डाल दी थी। भवन में जो प्रकाश आता था वह पानी की पतली चादरों से छनकर मद्धिम और रंगीन हो जाता था। दीवारों पर भाँति-भाँति की झालरें, मालायें और चित्र लटके हुए थे। बीच में एक हाथी दांत की परम मनो- हर मूर्ति थी जो निसियास ने भेंट की थी। एक तिपाई पर एक काले पाषाण की बकरी की मूर्ति थी, जिसकी आँखें नीलम की बनी हुई थी। उसके थनों को घेरे हुए छः चीनी के बच्चे खड़े थे, लेकिन वकरी अपने फटे हुए खुर उठाकर ऊपर की पहाड़ी पर