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अहङ्कार

उचक जाना चाहती थी। फर्श पर ईरानी क़ालोनें बिछी हुई थीं, ससनदों पर कैथे के बने हुए सुनहरे बेलबूटे थे। सोने के धूप- दानों से सुगंधित धुँएँ उठ रहे थे, और बड़े-बड़े चीनी के गमलों में फूलों से लदे हुए पौदे सजाये हुए थे। सिरे पर, ऊदी छाया मे, एक बड़े हिन्दुस्तानी कछुए के सुनहरे नख चमक रहे थे जो पेट के बत उलट दिया गया था। यही थायस का शयनागार था। इसी कछुए के पेट पर लेटी हुई वह इस सुगन्ध और सजावट और सुषमा का आनन्द उठाती थी, मित्रों से बातचीत करती थी और या तो अभिनय कला का मनन करती थी, या बीते हुए दिनों का।

तीसरा पहर था। थायस परियों के कुंज में शयन कर रही थी। उसने आइने में अपने सौन्दर्य की अवनति के प्रथम चिन्ह देखे थे, और उसे इस विचार से पीड़ा हो रही थी कि झुर्रियों और श्वेत बालों का आक्रमण होनेवाला है। उसने इस विचार से अपने को आश्वासन देने की विफल चेष्टा की कि मैं जड़ी-बु टियों के हवन करके मत्रों द्वारा अपने वर्ण की कोमलता को फिर से प्राप्त कर लूँगी। उसके कानों में इन शब्दों की निर्दय ध्वनि आई—'थायस, तू बुढ़िया हो जायगी!' भय से उसके माथे पर ठंडा-ठंडा पसीना आ गया। तब उसने पुनः अपने को सँभाल कर आईने में देखा और उसे ज्ञात हुआ कि मैं अब भी परम सुन्दरी और प्रेयसी बनने के योग्य हूँ। उसने पुलकित मन से मुसकिरा कर मन में कहा—'आज भी इस्कन्द्रिया में कोई ऐसी रमणी नहीं है जो अंगों की चपलता और लचक में मुझसे टकर ले सके। मेरे वाहों की शोभा अब भी हृदय को खींच सकती है, और यथार्थ में यही प्रेम का पाश है!'

वह इसी विचार में मग्न थी कि उसने एक अपरिचित मनुष्य को अपने सामने आते देखा। उसकी आँखों में ज्वाला