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अहङ्कार

महाशय, आप प्रेम-प्रदर्शन में बड़े कुशल मालूम होते हैं। होशियार रहियेगा, कि मेरी चितवनें आपके हृदय के पार न हो जायें। मेरे प्रेम के मैदान में जरा सँभाल कर कदम रखियेगा।

पापनाशी बोला—

थायस, मुझे तुमसे अगाध प्रेम है, तुम मुझे जीवन और मात्मा से भी प्रिय हो। तुम्हारे लिए मैंने अपना वन्यजीवन छोड़ा है, तुम्हारे लिए मेरे मोठों से, जिन्होंने मौनव्रत धारण किया था, अपवित्र शब्द निकले हैं। तुम्हारे लिए मैंने यह देखा है जो न देखना चाहिए था, वह सुना है जो मेरे लिए वर्जित था। तुम्हारे लिए मेरी आत्मा तड़प रही है, मेरा हृदय अधीर हो रहा है और जलस्रोत की भाँति विचार की धारायें प्रवाहित हो रही हैं। तुम्हारे लिए मैं अपने नंगे पैर सो और बिच्छुओं पर रखते हुए भी नहीं हिचका हूँ। अब तुम्हें मालूम हो गया होगा कि मुझे तुमसे कितना प्रेम है। लेकिन मेरा प्रेम उन मनुष्यों का- सा नहीं है जो वासना की अग्नि से जलते तुम्हारे पास जीपमक्षी न्यानों की, और उन्मत्त सांडों की भाँति दौड़े आते हैं। उनका वही प्रेम होता है जो सिंह को मृग-शावक से। उनकी पाशविक कामलिप्सा तुम्हारी आत्मा को भी भस्मीभूत कर डालेगी। मेरा प्रेम पवित्र है, अनन्त है, स्थायी है। मैं तुमसे ईश्वर के नाम पर, सत्य के नाम पर प्रेम करता हूँ। मेरा हृदय पतितोद्धार और ईश्वरीय दया के भाव से परिपूर्ण है। मैं तुम्हें फलों में ढकी हुई शराब की मस्ती से और एक अल्परात्रि के सुख-स्वप्न से कहीं उत्तम पदार्थों का वचन देने आया हूँ। मैं तुम्हें महाप्रसाद और सुधारस-पान का निमंत्रण देने आया हूँ। मैं तुम्हें उस आनन्द का सुख-सम्वाद सुनाने आया हूँ जो नित्य, अमर, अखण्ड है। मृत्युलोक के प्राणी यदि उसको देख लें सोमाश्चर्य से मर जायँ।