पृष्ठ:अहिल्याबाई होलकर.djvu/१३८

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हृदय रूपी कमल दुःख पर दुःख और शोक पर शोक सहने के कारण चलनी के सदृश हो छार छार हो गया था । परंतु इस हृदयविदारक कष्ट को भी बाई के भग्न हृदय ने किसी प्रकार सहन कर लिया और अंत में वे अपनी पुत्री मुक्ताबाई पर ही विवश हो अंतिम आशा रख काल व्यतीत करने लगीं । पर इतने पर भी पूर्व जन्मों के दुष्कृत फल का अंत नहीं हुआ था ।
यह संपूर्ण जगत प्रेम से व्याप्त है और विशेष कर मनुष्यों के जीवन का तो आधार ही है । पृथ्वी पर ऐसी कोई वस्तु नहीं दिखाई देती जो कि प्रेम के अंतर्गत न हो । और की तो कथा ही क्या है, इसी पृथ्वी और आकाश का कितना घनिष्ट प्रेम दृष्टिगत होता है जिसका नाम विद्वानों ने "गुरुत्वाकर्षण" बतलाया है । इसी प्रकार जब हम सांसारिक वस्तुओं की ओर दृष्टि डालते हैं तो सिवाय प्रेम के और कुछ नहीं भासता । घर, द्वार, पशु, पक्षी, नाले, वन, उपवन, द्वार, घाट, लता, वस्त्र, आभूषण, जंगल, पहाड़, नदी, माता, पिता, स्त्री, पुत्र यह सब प्रेम के बंधन हैं । और सब को जाने दीजिये, इस शरीर के जितने अवयव हैं उनका कितना घनिष्ट प्रेम जीव से और जीव का अवयवों से रहता है, यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है । तात्पर्य, प्रेम सज्जनों का आनंद, बुद्धिमानों का आश्चर्य और देवताओं का कौतुक है । प्रेम ही से कोमलता, सुख, इच्छा, ममता, मार्दव और सौंदर्य आदि गुणों की उत्पत्ति प्रतीत होती है । प्रेम ही हमारे जन्म की सार वस्तु है और जब