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पृष्ठ:आँधी.djvu/४६

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मधुआ
३९
 


पाया । दस बज रहे थे। कड़ाके की सर्दी थी। दोनों चुपचाप चलने लगे । शराबी की मौन सहानुभूति को उस छोटे से सरल हृदय न स्वीकार कर लिया । वह चुप हो गया। अभी वह एक तंग गली पर रुका ही था कि बालक के फिर से सिसकने की उसे बाहर लगी। वह भिड़क कर बोल उठा- अब क्या रोता है रे छोकरे ? मैंने दिन भर से कुछ खाया नहीं। कुछ खाया नहीं इतने बड़े अमीर के यहा रहता है और दिन भर तुझे खाने को नहीं मिला?

यही कहने तो मैं गया था जमादार के पास मार तो रोज ही खाता हूँ। आज तो खाना ही नहीं मिला । कुअर साहब का ओवरकोट लिये खेल मे दिन भर साथ रहा । सात बजे लौटा तो और भी नौ बजे तक कुछ काम करना पड़ा । आटा रख नहा सका था । रोटी बनती तो केसे ! जमादार से कहने गया था । भूख की बात कहते कहते बालक के ऊपर उसकी दीनता और भूख ने एक साथ ही जैसे आक्रमण कर दिया वह फिर हिचकिया लेने लगा।

शराबी उसका हाथ पकड़ कर घसीटता हुमा गली म ले चला। एक गदी कोठरी का दरवाजा ढकेलकर बालक को लिए हुए वह भीतर पहुचा । टटोलते हुए सलाई से मिट्टी की ढेबरी जलाकर वह फटे कंबल के नीचे से कुछ खोजने लगा। एक पराठे का टुकड़ा मिला ! शराबी उसे बालक के हाथ में देकर बोला--तब तक तू इसे चबा मैं तेरा गढा भरने के लिए कुछ और ले आऊ-सुनता है रे छोकरे । रोना मत रोयेगा तो खूब पीटगा । मुझसे रोने से बड़ा बैर है । पाजी कहीं का मुझे भी रुलाने का

शराबी गली के बाहर भागा। उसके हाथ में एक रुपया था।-