आँँधी
समय तक स्तष और शन्य सा वहीं खड़ा रहा । फिर सहसा जिस ओर इरावती गई थी उसी ओर चल पड़ा।
युवक बलराज कई दिन तक पागलों सा धनदत्त के उपवन से नगर तक चक्कर लगाता रहा । भूख प्यास भूल कर वह इरावती को एक बार फिर देखने के लिए विकल्प था कि वह सफल न हो सका । आज उसने निश्चय किया था कि वह काशी छोड़ कर चला जायगा । वह जीवन से हताश होकर काशी से प्रतिष्ठान जानेवाले पथ पर चलने लगा। उसकी पहाड़ के टोके-सी काया जिसमें असुर सा बल होने का लोग अनुमान करते निर्जीव-सी हो रही थी । अनाहार से उसका मुख विवरण था। यह सोच रहा था उस दिन विश्वनाथ के मन्दिर में न जाकर मैंने आमहत्या क्यों न कर ली! वह अपनी उधेड़बुन में चल रहा था। न जाने कब तक चलता रहा । वह चौंक उठा जब किसी के डांटने का शब्द सुनाई पड़ा देख कर नहीं चलता | बलराज ने चौक कर देखा अश्वारोहियों की एक लम्बी पंक्ति जिसमें अधिकतर अपने घोड़ों को पकड़े हुए पैदल ही चल रहे थे। ये सब तुर्फ थे । घोड़ों के व्यापारी से जान पड़ते थे । गजनी के प्रसिद्ध महमूद के आक्रमणों का अंत हो चुका था। मसऊद सिंहासन पर था। पंजाब तो गजनी के सेनापति नियाल्तगीन के शासन में था । मध्य प्रदेश में भी तुर्क व्यापारी अधिकतर व्यापारिक प्रभुत्व स्थापन करने के लिए प्रयत्न कर रहे थे। वह राह छोड़ कर हट गया । श्रश्वारोही ने पूछा- बनारस कितनी दूर होगा ! बलराज ने कहा मुझे नहीं मालूम ।
तुम अभी उधर ही से चले आ रहे हो और कहते हो नहीं मालूम । ठीक ठीक बताओ नहीं तो ।
नहीं तो क्या ? मैं तुम्हारा नौकर हूँ। कहकर वह आगे बढ़ने लगा । अकस्मात् पहले अश्वारोही ने कहा-पकड़ लो इसको!