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दासी
५९
 


मैं नहीं जानती।-एक श्राकस्मिक उत्तर मिला। और वह तो तुम्हारे ही लिए गजनी से हिन्दुस्तान चला आया। तो क्यों जाने दिया वहीं रोक रखतीं । तुमको क्या हो गया है।

मैं-मैं नहीं रही मैं हूँ दासी कुछ धातु के टुकड़ों पर बिकी हुई गड़ मांस का समूह जिसके भीतर एक सूखा हृदय पिण्ड है। इरा । वह मर जायेगा । पागल हो जायेगा। और मैं क्या हो जाऊँ फीरोजा ? अच्छा होता तुम भी मर जाती !-तीखेपन से फीरोजा ने कहा ।

इरावती चौंक उठी। उसने कहा-बलराज ने वह भी न होने दिया। उस दिन निया तगीन की तलवार ने यही कर दिया होता किन्तु मनुष्य बड़ा स्वार्थी है। अपने सुख की प्राशा में वह कितनों को दुखी बनाया करता है। अपनी साध पूरी करने में दूसरों की आवश्यकता ठुकरा दी जाती है। तुम ठीक कह रही हो फीरोजा मुझे ।

ठहरी इरा ! तुमने मन को कावा बना कर मेरी बात सुनी है। उतनी ही तेजी से उसे बाहर कर देना चाहती हो।

मेरे दुखी होने पर जो मेरे साथ रोने आता है उसे मैं अपना मित्र नहीं जान सकती फीरोजा । मैं तो देखेगी कि वह मेरे दुख को कितना कम कर सका है । मुझे दुख सहने के लिए जो छोड़ जाता है केवल अपने अभिमान और आकाक्षा की दृष्टि के लिए मेरे दुःख में हाथ बढाने का जिस का साहस नहीं जो मेरी परिस्थिति में साथी नहीं बन सकता जो पहले अमीर बनना चाहता है फिर अपने प्रेम का दान करना चाहता है वह मुझ से हृदय मागे इस से बढ़ कर धृष्टता और क्या होगी?