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आकाश-दीप
 


केत वादयते मृदु वेणु•••••" ओह! वे संगीत मदिरा की लहरें थीं। मै उसमें उभ-चुभ होने लगा। उसकी कुसुम-आभरण से भूषित अङ्गलता के संचालन से वायु-मण्डल सौरभ से भर जाता था। वह विवश थी, जैसे कुसुमिता लता तीव्र पवन के झोके से। रागों के स्वर का स्पन्दन उसके अभिनय में था। लोग उसे विस्मय-विमुग्ध देखते थे। पर न-जाने क्यों मेरे मन में उद्वेग हुआ; मैं जाकर अपनी कोठरी में पड़ रहा। आज कार्यालय से लौट आने के लिये पत्र आया था। उसीको विचारता हुआ कब तक आँखें बन्द किये पड़ा रहा, मुझे विदित नहीं सहसा साँय-साँय फुस-फुस का शब्द सुनाई पड़ा; मैं ध्यान लगाकर सुनने लगा।

ध्यान देने पर मैं जान गया कि दो व्यक्ति बातें कर रहे थे---चिदम्बरम् और रामस्वामी नाम का वही धनी युवक। मैं मनोयोग से सुनने लगा।---

चिदम्बरम्---तुमने आज तक उसकी इच्छा के विरुद्ध बड़े-बड़े अत्याचार किये हैं, अब जब वह नहीं चाहती तो तुम उसे क्यों सताते हो?

रामस्वामी---सुनो चिदम्बरम्, सुन्दरियों की कमी नहीं; पर न-जाने क्यों मेरा हृदय उसे छोड़कर दूसरी ओर नहीं जाता। वह इतनी निरीह है कि उसे मसलने में आनन्द आता है! एक बार उससे कह दो मेरी बातें सुन ले, फिर जो चाहे करे।

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