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देवदासी
 

चिदम्बरम् चला गया और उसकी बातें बन्द हुई। और सच कहता हूँ, मंदिर से मेरा मन प्रतिकूल होने लगा। पैरों के शब्द हुए, वही जैसे रोती हुई बोली---"रामस्वामी; मुझ पर दया न करोगे?" ओह! कितनी वेदना थी उसके शब्दो में परन्तु रामस्वामी के हृदय में तीव्र ज्वाला जल रह थी। उसके वाक्यों में लू-जैसी झुलस थी। उसने कहा---पद्मा! यदि तुम मेरे हृदय की ज्वाला समझ सकती तो तुम ऐसा न कहती। मेरे हृदय की तुम अधिष्ठात्री हो, तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकता। चलो, मैं देवता का कोप सहने के लिये प्रस्तुत हूँ, मैं तुम्हें लेकर कहीं चल चलूँगा।

"देवता का निर्माल्य तुमने दूषित कर दिया है, पहले इसका तो प्रायश्चित करो। मुझे केवल देवता के चरणों में मुरझाये हुए फूल के समान गिर जाने दो। रामस्वामी, ऐसा स्मरण होता है कि मैं भी तुम्हें चाहने लगी थी। उस समय मेरे मत में यह विश्वास था कि देवता यदि पत्थर के न होंगे तो समझेंगे कि यह मेरे मासल यौवन और रक्तपूर्ण हृदय की साधारण आवश्यकता है। मुझे क्षमा कर देंगे, परन्तु मैं यदि वैसा पुण्य परिणय कर सकती! आह! तुम इस तपस्वी की कुटी समान हृदय में इतना सौन्दर्य्य लेकर क्यों अतिथि हुए? रामस्वामी, तुम मेरे दुःखों के मेघ में वज्रपात थे।"

पद्मा रो रही थी। सन्नाटा हो गया। सहसा जाते-जाते

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