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आकाश-दीप
 


रामस्वामी ने कहा---"मैं तुम्हारे बिना नहीं रह सकता।" रमेश! मैं भी पद्मा के बिना नहीं रह सकता। मैंने भी कार्यालय में त्याग-पत्र भेज दिया है। भूखों मरूँगा, पर उपाय क्या है?

---अभागा अशोक

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रमेश!

मैं बड़ा विचलित हो रहा हूँ। एक कराल छाया मेरे जीवन पर पड़ रही है! अदृष्ट मुझे अज्ञात पथ पर खींच रहा है, परन्तु तुमको लिखे बिना रह नहीं सकता।

मधुमास में जंगली फूलों की भीभी-भीनी महक सरिता के कूल की शैलमाला को आलिङ्गन दे रही थी। मक्खियों की भन्नाहट का कलनाद गुंजरित हो रहा था। नवीन पल्लवों के कोमल स्पर्श से वनस्थली पुलकित थी। मैं जंगली जर्द चमेली के अकृत्रिम कुंज के अन्तराल में बैठा, नीचे बहती हुई नदी के साथ वसंत की धूप का खेल देख रहा था। हृदय में आशा थी। अहा! वह अपने तुहिन-जाल से रत्नाकर के सब रत्नों को, आकाश से सब मुक्ताओं को निकाल, खींच कर मेरे चरणों में उझल देती थी। प्रभात की पीली किरणों से हेमगिरि को घसीट ले आती थी; और ले आती थी पद्मा की मौन

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