रहा। प्रभात होते ही तुम्हें पत्र लिख रहा हूँ! मैने क्या किया?
रमेश! तुम कुछ लिखो, मैं क्या करूँ?
---अधम अशोक
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८–-४--२५
प्रिय रमेश!
तुम्हारा यह लिखना कि 'सावधान बनो! पत्र में ऐसी बातें अब न लिखना!' व्यर्थ है। मुझे भय नहीं, जीवन की चिन्ता नहीं।
नगर-भर में केवल यही जनश्रति फैली है कि 'रामस्वामी उस
दिन से कहीं चला गया है और वह पद्मा के प्रेम से हताश हो गया
था।' मैं किंकर्तव्य-मिभूढ़ हूँ। चिदम्बरम् मुझे दो मूठी भात खिलाता
है। मैं मंदिर के विशाल प्रांगण में कहीं-न-कहीं बैठा रहता हूँ।
चिदम्बरम् जैसे मेरे उस जन्म का पिता है। परंतु पद्मा, अहा! उस
दिन से मैंने उसे गाते और नाचते नहीं देखा। वह प्रायः सभामण्डप के स्तम्भ से टिकी हुई, दोनों हाथों में अपने एक घुटने को
छाती से लगाये अर्द्ध स्वप्नावस्था में बैठी रहती है। उसका मुख
विवर्ण, शरीर क्षीर्ण, पलक अपाङ्ग और उसके श्वास में यान्त्रिक
स्पन्दन है। नये यात्री कभी-कभी उसे देखकर भ्रम करते होंगे कि
वह भी कोई प्रतिमा है। और मैं सोचता हूँ कि मैं हत्यारा हूँ। स्नेह
से स्नान कर लेता हूँ, घृणा से मुँह ढँक लेता हूँ। उस घटना के
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