पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/१०७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
देवदासी
 


बाद से हम तीनों में कभी इसकी चर्चा नहीं हुई। क्या सचमुच पद्मा रामस्वामी को चाहती थी? मेरे प्यार ने भी उसका अपकार ही किया, और मैं? ओह! वह स्वप्न कैसा सुन्दर था!

रमेश! मैं देवता की ओर देख भी नहीं सकता। सोचता हूँ कि मैं पागल हो जाऊँगा। फिर मन में आता है कि पद्मा भी बावली हो जायगी। परन्तु मैं पागल न हो सकूँगा; क्योंकि मैं पद्मा से कभी अपना प्रणय नहीं प्रकट कर सका। उससे एक बार कह देने की कामना है---पद्मा, मैं तुम्हारा प्रेमी हूँ। तुम मेरे लिये सोहागिनी के कुंकुम बिन्दु के समान पवित्र, इस मन्दिर के देवता की तरह भक्ति की प्रतिमा और मेरे दोनों लोक की निगूढ़तम आकांक्षा हो।

पर वैसा होने का नहीं। मैं पूछता हूँ कि पद्मा और चिदम्बरम् ने मुझे फाँसी क्यों नहीं दिलाई?

रमेश! अशोक विदा लेता है। वह पत्थर के मन्दिर का एक भिखारी है। अब पैसा नहीं कि तुम्हें पत्र लिखूँ और किसी से मागूँगा भी नहीं। अधम नीच अशोक लल्लू को किस मुँह से आशीर्वाद दे?

---हतभाग्य अशोक



_________

--- १०३ ---