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समुद्र-सन्तरण
 

"यदि मैंने झूठ कहा हो, तो?"

"तो कल फिर जाल डालूँगी।"

"तुम केवल सुन्दरी ही नहीं, सरल भी हो।"

"और तुम पंचक हो।"---कह कर धीवर-बाला ने एक निश्वास ली, और सन्ध्या के समान अपना मुख फेर लिया। उसकी अलकावली जाल के साथ मिलकर निशीथ का नवीन अध्याय खोलने लगी। सुदर्शन सिर नीचा करके कुछ सोचने लगा। धीवर बालिका चली गई। एक मौन अन्धकार टहलने लगा। कुछ काल के अनन्तर दो व्यक्ति एक अश्व लिये आये। सुदर्शन से बोले---"श्रीमन्, विलम्ब हुआ। बहुत-से निमन्त्रित लोग आ रहे है। महाराज ने आपका स्मरण किया है।"

"मेरा यहाँ पर कुछ खो गया है, उसे ढूँढ लूँगा, तब लौटूँगा।

"श्रीमन्, रात्रि तमीप है।"

"कुछ चिन्ता नहीं, चन्द्रोदय होगा।"

"हम लोगों को क्या आज्ञा है?"

"जाओ।"

सब लोग गये। राजकुमार सुदर्शन बैठा रहा। चाँदी का थाल लिए रजनी समुद्र से कुछ अमृत-भिक्षा लेने आई। उदाहरण सिन्धु देने के लिये उमड़ उठा। लहरियाँ सुदर्शन के पैर

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