पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/१२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
आकाश-दीप
 


दो-तीन चमकीली लपटें उठने लगीं। एक धुँधला प्रकाश फैल गया। वैरागी ने एक कम्बल लाकर स्त्री को दिया। उसे ओढ़ कर वह बैठ गई। निर्जन प्रान्त में दो व्यक्ति। अग्नि-प्रज्वलित पवन ने एक थपेड़ा दिया। वैरागी ने पूछा---"कब तक बाहर बैठोगी?"

"रात बिता कर चली जाऊँगी, कोई आश्रय खोजूँगी; क्योंकि यहाँ रह कर बहुतों के सुख में बाधा डालना ठीक नहीं। इतने समय के लिये कुटी में क्यों आऊँ?"

वैरागी को जैसे बिजली का धक्का लगा। वह प्राणपण से बल संकलित करके बोला---"नहीं-नहीं, तुम स्वतन्त्रता से यहाँ रह सकती हो।"

"इस कुटी का मोह तुमसे नहीं छूटा। मैं उसमें समभागी होने का भय तुम्हारे लिये उत्पन्न करूँगी।"---कह कर स्त्री ने सिर नीचा कर लिया। वैरागी के हृदय में सनसनी हो रही थी। वह न-जाने क्या करने जा रहा था, सहसा बोल उठा---

"मुझे कोई पुकारता है, तुम इस कुटी को देखना!"---यह कह कर वैरागी अन्धकार में विलीन हो गया। स्त्री अकेली रह गई है।

पथिक लोग बहुत दिन तक देखते रहे कि एक पीला मुख उस तृण-कुटीर से झाँक कर प्रतीक्षा के पथ में पलक-पाँवड़े बिछाता रहा।

--- ११६ ---