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बनजारा

धीरे-धीरे रात खिसक चली, प्रभात के फूलों से तारे चू पड़ना चाहते थे। विन्ध्य की शैलमाला में गिरि-पथ पर एक झुण्ड बैलों का बोझ लादे आता था। साथ के वनजारे उनके गले की घण्टियों के मधुर स्वर में अपने ग्राम-गीतों का आलाप मिला रहे थे। शरद ऋतु की ठण्ड से भरा हुआ पवन उस दीर्घ पथ पर किसी को खोजता हुआ दौड़ रहा था।

वे बनजारे थे। उनका काम था सरगुजा तक के जङ्गलों में जाकर व्यापार की वस्तु क्रय-विक्रय करना। प्रायः बरसात छोड़ कर वे आठ महीने यही उद्यम करते। उस परिचित पथ में चलते हुए वे अपने परिचित गीतों को कितनी ही बार उन पहाड़ी

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