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बनजारा
 


पहाड़ी के नीचे, फूस की झोपड़ी में, उषा की किरनों का गुच्छा सुनहले फूल के सदृश झलने लगा था। अपने दोनों हाथों पर झुकी हुई एक साँवली-सी युवती उस आहत पुरुष के मुख को एक टक देख रही थी। धीरे-धीरे युवती के मुख पर मुस्कुराहट और पुरुष के मुख पर सचेष्टता के लक्षण दिखलाई देने लगे। पुरुष ने आँखें खोल दीं। युवती पास ही धरा हुआ गरम दूध उसके मुँह में डालने लगी। और युवक पीने लगा।

युवक को उतनी चोट नहीं थी, जितना वह भय से आक्रान्त था। वह दूध पीकर स्वस्थ हो चला था; उठने की चेष्टा करते हुए पूछा---"मोनी, तुम हो!"

"हाँ चुप रहो।"

"अब मैं चंङ्गा हो गया हूँ, कुछ डरने की बात नहीं।" अभी युवक इतना ही कह पाया था कि एक कोल-चौकीदार की क्रूर आँखें उस झोपड़ी में झाँकने लगीं। युवती ने उसे देखा। चौकीदार ने हँसकर कहा---"वाह मोनी! डाका भी डलवाती हो और दया भी करती हो! बताओ तो कौन-कौन थे; साहब पूछ रहे हैं!"

मोनी की आँखें चढ़ गई। उसने दाँत पीसकर कहा---"तुम पाजी हो! जाओ, मेरी झोपड़ी में से निकल जाओ!"

"हाँ यह कहो, तो तुम्हारा मन रीझ गया है इस पर, यह तो कभी-कभी तुम्हारा प्याज मेवा लेने आता था न!"---चौकीदार ने कहा।

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