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आकाश-दीप
 

घायल बाघिनी-सी वह तड़प उठी। चौकीदार कुछ सहमा। परन्तु वह पूरा काइयाँ था, अपनी बात का रुख बदल कर वह युवक से कहने लगा---"क्यों जी तुम्हारा भी तो लूटा गया है, कुछ तुम्हें भी चोट आई हैं! चलो साहब से अपना हाल कहो। बहुत से माल का पता लगा है; चलकर देखो तो!"

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"क्यों मोनी। अब जेल जाओगी न ? बोलो; अब से भी अच्छा है। हमारी बात मान जाओ।"---चौकीदार ने पड़ाव से दूर हथकड़ी से जकड़ी हुई मोनी से कहा। मोनी अपनी आँखों की स्याही सन्ध्या की कालिमा में मिला रही थी। पेड़ों की उस झुरमुट में दूर वह बनजारा भी खड़ा था। एक बार मोनी ने उसकी ओर देखा, उसके ओठ फड़क उठे। वह बोली---"मैं किसी को नहीं जानती, और नहीं जानती थी कि उपकार करने जाकर यह अपमान भोगना पड़ेगा!" फिर जेल की भीषणता स्मरण करके वह दीनता से बोली---"चौकीदार! मेरी झोपड़ी और सब पेड़ ले लो; मुझे बचा दो?"

चौकीदार हँस पड़ा। बोला---मुझे वह सब न चाहिये; बोलो तुम मेरी बात मानोगी, वही......"

मोनी ने चिल्लाकर कहा---"नहीं, कभी नहीं!"

नर-पिशाच चौकीदार ने बेदर्द होकर कई थप्पड़ लगाये, पर

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