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आकाश-दीप
 

सामने देखा---पहाड़ी नदी के तट पर बैठी हुई मोनी को! वह हँसता हुआ फूल कुम्हिला गया था, अपने दोनों पैर नदी में डाले बैठी थी। नन्दू ने पुकारा---'मोनी!' वह फिर भी कुछ न बोली। अब वह पास आ गया। मोनी में देखा। एक बार उसके मुँह पर कुछ तरावट-सी दौड़ गई, फिर सहसा कड़ी धूप निकल आने पर एक बौछार की गीला भूमि जैसे रूखी हो जाती है, वैसे ही उसके मुँह पर धूल उड़ने लगी।

नन्दू ने पूछा---"मोनी! प्याज-मेवा है?"

मोनी ने रूखेपन से कहा---"अब मै नहीं बटोरती नन्दू! बेचने के लिये नहीं इकट्ठा करती।"

नन्दू ने पूछा---"क्यों अब क्या हो गया?"

"जंगल में वही सब तो हम लोगों के भोजन के लिये है, उसे बेच दूँगी, तो खाऊँगी क्या?"

"और पहले क्या था?"

"वह लोभ था; व्यापार करने की, धन बटोरने की इच्छा थी।"

"अब वह इच्छा क्या हुई।"

"अब मैं समझती हूँ कि सब लोग न तो व्यापार कर सकते हैं और न तो सब वस्तु बाजार में बेची जा सकती है।"

"तो मैं लौट जाऊँ?"

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