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चूूड़ीवाली
 


तो हानि क्या, परन्तु बहूजी को अपने प्रणय के एकाधिपत्य पर पूर्ण विश्वास था। वह निष्क्रिय प्रतिरोध करने लगीं। राजयक्ष्मा के भयानक आक्रमण से वह घुलने लगीं और सरकार वन-विहङ्गिनी विलासिनी को स्वायत्त करने में दत्तचित्त हुए। रोगी की शुअषा और सेवा में कोई कमी न थी, परन्तु एक बड़े मुकदमे में सरकार का उधर सर्वस्वान्त हुआ, इधर बहूजी चल बसीं।

चूड़ीवाली ने समझा कि उसकी पूर्ण विजय हुई, पर बात कुछ दूसरी थी। विजयकृष्ण का वह एक विनोद था। जब सब कुछ चला गया तब विनोद लेकर क्या होगा। एक दिन उन्हें त्मरण हुआ कि अब मेरा कुछ नहीं है। उसी दिन चूड़ीवाली से छुट्टी मॉगी। उसने कहा---"कमी किस बात की है, मैं तुम्हारी ही हूँ और सब विभव भी तुम्हारा हैं।" विजयकृष्ण ने कहा---"मैं वेश्या की दी हुई जीविका से पेट पालने में असमर्थ हूँ।" चूड़ीवाली विलखने लगी, विनय किया, रोई, गिड़गिड़ाई, पर विजयकृष्ण चले ही गये। वह सोचने लगी कि---"अपना व्यवसाय और विजय की गृहस्थी बिगाड़ कर जो सुख खरीदा था, उसका कोई मूल्य नहीं। मैं कुलवधू होने के उपयुक्त नहीं। क्या समाज के पास इसका कोई प्रतिकार नहीं, इतनी तपस्या और इतना स्वार्थत्याग व्यर्थ है?"

परन्तु विलासिनी यह न जानती थी कि स्त्री और पुरुष सम्बन्धी समस्त अन्तिम निर्णय करने में समाज कितना ही उदार

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