पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/१४३

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अपराधी
 

"वाह! अच्छा तुम इस माला को पूरी करो, मैं लौटकर उसे लूँगा।" डरने पर भी मालिन ढीठ थी। उसने कहा---"धूप निकल आने पर कामिनी का सौरभ कम हो जायगा।"

"मैं शीघ्र आऊँगा"---कहकर राजकुमार चले गए।"

मालिन ने माला बना डाली। किरणें प्रतीक्षा में लाल-पीली होकर धवल हो चलीं। राजकुमार लौटकर नहीं आए। तब वह उसी ओर चली---जिधर राजकुमार गए थे।

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युवती बहुत दूर न गई होगी कि राजकुमार लौटकर दूसरे मार्ग से उसी स्थान पर आए। मालिन को न देखकर पुकारने लगे---"मालिन! ओ मालिन!!"

दूरागत कोकिल की पुकार-सा वह स्वर उसके कान में पड़ा। वह लौट आई। हाथों में कामिनी की माला लिये वह वनलक्ष्मी के समान लौटी। राजकुमार उस दीन-सौन्दर्य्य को सकतूहल देख रहे थे। कामिनी ने माला गले में पहना दी। राजकुमार ने अपना कौशेय उष्णीश खोलकर मालिन के ऊपर फेंक दिया। कहा---"जाओ, इसे पहन कर आओ।" आश्चर्य और भय से लताओं की झुरमुट में जाकर उसने आज्ञानुसार कोशेय वसन पहना।

बाहर आई तो उज्ज्वल किरनें उसके अंग-अंग पर हँसते-हँसते लोट-पोट हो रही थीं। राजकुमार मुसकिराये और कहा---"आज से तुम इस कुसुमकानन की वन-पालिका हुई हो। स्मरण रखना।"

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