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आकाश-दीप
 

राजकुमार चले गए। मालिन किंकर्त्तव्य-विमूढ़ होकर मधुक-वृक्ष के नीचे बैठ गई।

वसन्त बीत गया। गर्मी जला कर चली गई। कानन में हरियाली फैल रही थी। श्यामल घटाएँ आकाश में और शस्य-शोभा धरणी पर एक सघन-सौन्दर्य का वजन कर रही थीं। वन-घालिका के चारों ओर मयूर घेर कर नाचते थे। सन्ध्या में एक सुन्दर उत्सव हो रहा था। रजनी आई। वन-पालिका के कुटीर को तम ने घेर लिया। मूसलाधार वृष्टि होने लगी। युवती प्रकृति का मद विह्वल-लास्य था। वन-पालिका पर्ण-कुटीर के वातायन से चकित होकर देख रही थी। सहसा बाहर कंपित कण्ठ से शब्द हुआ---"आश्रय चाहिए!" वन-पालिका ने कहा---"तुम कौन हो?"

"एक अपराधी।"

"तब यहाँ स्थान नहीं हैं।"

"विचार कर उत्तर दो, कहीं आश्रय न देकर तुम अपराध न कर बैठो।" वन-पालिका विचारने लगी। बाहर से फिर सुनाई पड़ा---

"विलम्ब होने से प्राणों की आशङ्का है।"

वन-पालिका निस्संकोच होकर उठी और उसने द्वार खोल दिया। आगन्तुक ने भीतर प्रवेश किया। वह एक बलिष्ट युवक

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