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अपराधी
 


था। साहस उसकी मुखाकृति थी। वन-पालिका ने पूछा---"तुमने कौन सा अपराध किया है?"

"बड़ा भारी अपराध है, प्रभात होने पर सुनाऊँगा। इस रात्रि में केवल आश्रय दो।"---कहकर आगन्तुक अपना आर्द्र वस्त्र निचोड़ने लगा। उसका स्वर विकृत और बदन नीरस था। अन्धकार ने उसे और भी अस्पष्ट बना दिया था।

युवती वन-पालिका व्याकुल होकर प्रभात की प्रतीक्षा करने लगी। सहसा युवक ने उसका हाथ पकड़ लिया। वह त्रस्त हो गई, बोली---"अपराधी, यह क्या?"

"अपराधी हूँ सुन्दरी!"---अबकी-बार उसका स्वर परिवर्तित था। पागल-प्रकृति पर्ण-कुटी को घेर कर अपनी हँसी में फूटी पड़ती थी। वह कर-स्पर्श उन्मादकारी था। कामिनी की धमनियों में बाहर के बरसाती नालों के समान रक्त दौड़ रहा था। युवक के स्वर में परिचय था, परन्तु युवती को वासना के कुतूहल ने भय का बहाना खोज लिया! बाहर करकापात के साथ ही बिजली कड़की। वन-पालिका ने दूसरा हाथ युवक के कण्ठ में डाल दिया।

अन्धकार हँसने लगा।

बहुत दिन बीत गए। कितने ही बरस आए और चले गए। वह कुसुम-कानन---जिसमें मोर, शुक और पिक, फूलों से लदी

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