पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/१४७

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अपराधी
 

किशोर ने बिना रोए-चिल्लाए और आँसू बहाए बेंतों की चोट सहन की। उसका सारा अङ्ग क्षत-विक्षत था, पीड़ा से चल नहीं सकता था। मृगया से लौटते हुए राजा ने देखा। एक बार दया तो आई, परन्तु उसका कोई उपयोग न हुआ। रानी की आज्ञा थी। वन-पालिका ने निकल जाने पर किशोर को गोद में उठा लिया। अपने आँसुओं से घाव धोती हुई, उसने कहा---"आह! वे कितने निर्दय हैं!"

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फिर कई वर्ष बीत गए। नवीन राजपुत्र को मृगया की शिक्षा के लिए, लक्ष्य साधने के लिए, वही नागरोपकण्ड का वन स्थिर हुआ। वहाँ राजपुत्र हिरनों पर, पक्षियों पर तीर चलाता। वन-पालिका को अब फिर कुछ लाभ होने लगा। हिरनों को हाँकने से, पक्षियों का पता बताने से, कुछ मिल जाता। परन्तु उसका पुत्र किशोर राजकुमार की मृगया में भाग न लेता।

एक दिन बसन्त की उजली धूप में राजा अपने राजपुत्र की मृगया-परीक्षा लेने के लिए, सोलह बरस बाद, उस जङ्गल में आए। राजा का मुँह एक बार विवर्ण हो गया। उस कुसुमकानन के सभी सुकुमार पौधे सूखकर लोप हो गए हैं। उनकी पेड़ियों में कहीं-कहीं दो-एक अंकुर निकल कर अपने प्राचीन बीज का निर्देश करते थे। राजा स्वप्न के समान उस अतीत की कल्पना कर रहे थे।