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रूप की छाया
 

"बड़ी प्रसन्नता से, आप लोगों का कोई छोटा-मोटा काम भी कर दिया करूँगा।"

"अभी चल सकते हो।"

"कुछ पुस्तक और सामान है उन्हें लेता आऊँ।"

"ले आओ मैं बैठी हूँ।"

युवक चला गया।

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गंगा-तट पर एक कमरे में उज्ज्वल प्रकाश फैल रहा था। युवक विद्यार्थी, बैठा हुआ व्यालू कर रहा था। अब वह कालेज के छात्रों में है। उसका रहन-सहन बदल गया है। वह एक सुरुचि-सम्पन्न युवक हो गया है। अभाव उससे दूर हो गये थे।

प्रौढ़ा परसती हुई बोली---"क्यों शैलनाथ! तुम्हें अपनी चाची का स्मरण होता है?"

"नहीं तो, मेरे कोई चाची नहीं हैं।"

दूर बैठी हुई युवती ने कहा---"जो अपनी स्मृति के साथ विश्वासघात करता है उसे कौन स्मरण दिला सकता है।"

युवक ने हँसकर इस व्यङ्ग को उड़ा दिया। चुपचाप घड़ी का टिक्-टिक् शब्द सुनता और मुँह चलता जा रहा था। मन में मनोविज्ञान का पाठ सोचता जाता था---"मन क्यों एक बार एक ही विषय का विचार कर सकता है?"

प्रौढ़ा चली गई। युवक हाथ-मुँह धो चुका था। सरला ने

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