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आकाश-दीप
 

"गंगाजल छूकर बोल रहे हो! फिर से सच कहो!"

युवक ने देखा गोधूलि-मलिना-जाह्नवी के जल में सरला के उज्ज्वल रूप की छाया चन्द्रिका के समान पड़ रही है। गंगा का उतना अंश मुकुर सदृश धवल था। उसी में अपना मुख देखते हुए शैलनाथ ने कही।

"भ्रम है सुन्दरी! तुम्हें पाप होगा।"

"हाँ, परन्तु वह पाप, पुण्य बनने के लिये उत्सुक है।"

"मैं जाता हूँ। सरला, तुम्हें रूप की छाया ने भ्रान्त कर दिया है। अभागों को सुख भी दुख ही देता है। मुझे और कहीं आश्रय खोजना पड़ा।"

शैलनाथ उठा और चला गया।

विमूढ़ सरला कुछ न बोल सकी। वह क्षोभ और लज्जा से गड़ी जाने लगी। क्रमशः घनीभूत रात में सरला के रूप की छाया भी विलीन हो गई।



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