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आकाश-दीप
 


चली जा रही थी। वह एक क्रीडा सी था। परन्तु सुप्त हिमाचल उसका चुम्बन न ले सकता था! नीरव प्रदेश उस सौन्दर्य से आलोकित हो उठता था। बालिका न-जानें क्या खोजती चली जाती था। जैसे शीतल जल का एक स्वच्छ सोता एकाग्र मन से बहता जाता हो।

बहुत खोजने पर भी उसे वह वस्तु न मिली जिसे वह खोज रही थी। सम्भवतः वह स्वयं खो गई। पथ भूल गया, अज्ञात प्रदेश में जा निकली। सामने निशा की निस्तब्धता भङ्ग करता हुआ एक निर्झर कलरव कर रहा था। सुन्दरी ठिठक गई। क्षण भर के लिए तमिस्रा की गम्भीरता ने उसे अभिभूत कर लिया। हताश होकर शिला-खण्ड पर बैठ गई।

वह श्रान्त हो गई थी। नील निर्भर की तम समुद्र में संगम, एकटक वह घण्टों देखती रही। आँखें ऊपर उठतीं, तारागण झलझला जाते थे। नीचें निर्भर छलछलाता था। उसकी जिज्ञासा का कोई स्पष्ट उत्तर न देता। मौन प्रकृति के देश में न स्वयं कुछ कह सकती और न उनकी बात समझ में आती। अकस्मात् किसी ने पीठ पर हाथ रख दिया। वह सिहर उठी, भय का संचार हो गया। कम्पित स्वर से बालिका ने पूछा, "कौन?"

"यह मेरा प्रश्न है। इस निर्जन निशीथ में जब सत्व विचरते हैं, दस्यु घूमते हैं, तुम यहाँ कैसे!" गम्भीर कर्कश कण्ठ से आगन्तुक ने पूछा!

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