पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/१७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
आकाश-दीप
 


रहते, उसे उन सब पदार्थों से वितृष्णा हो चली थी। साजन पालतू पशु के समान अपनी स्वामिनी की आज्ञा की अपेक्षा करता; परन्तु रमला का उत्साह तो उस बन्दीगृह से भाग जाने के लिए उत्सुक था।

"साजन ने एक दिन पूछा---

"क्या ले आऊँ?"

"कुछ नहीं।"

"कुछ नहीं? क्यों?"

"मैं अब जाऊँगी?"

"कहाँ?"

"जिधर जा सकूँगी।"

"तब यहीं क्यों नहीं रहती हो?"---अचानक साजन ने कहा।

रमला कुछ न बोली। उस झील पर रात आई, अपना जगमगाता चँदवा तानकर विश्राम करने लगी। रमला अपनी गुफा में सोने चली गई और साजन अपनी गुफा के पास बैठा। एकटक वह रजनी का सौन्दर्य देखने लगा। आज जैसे उसे स्मृति हुई---मला के आ जाने से वह जिस बात को भूल गया था। उसके अन्तर की वही भावना जाग उठी। साजन पुकार उठा---'रानी!' बहुत दिन के बाद उस झील की पहाड़ियाँ प्रतिध्वनि से मुखरित हो उठीं--ई--ई--ई।

रमला चौंककर जाग पड़ी। बाहर चली आई। उसने देखा,

--- १७४ ---