पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/२७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
ममता
 

"गला सूख रहा है, साथी छूट गये हैं, अश्व गिर पड़ा है---इतना थका हुआ हूँ, इतना।"---कहते-कहते वह व्यक्ति धम से बैठ गया और उसके सामने ब्रह्माण्ड घूमने लगा। स्त्री ने सोचा, यह विपत्ति कहाँ से आई! उसने जल दिया, मुगल के प्राणों की रक्षा हुई। वह सोचने लगी---"सब विधर्मी दया के पात्र नहीं---मेरे पिता का वध करनेवाले आततायी?"---घृणा से उसका मन विरक्त हो गया।

स्वस्थ होकर मुगल ने कहा---"माता! तो फिर मैं चला जाऊँ?"

स्त्री विचार कर रही थी---"मैं ब्राह्मणी हूँ, मुझे तो अपने धर्म—अतिथिदेव की उपासना—का पालन करना चाहिये। परन्तु यहाँ......नहीं-नहीं, सब विधर्मी दया के पात्र नहीं। परन्तु यह दया तो नहीं......कर्तव्य करना है। तब?"

मुगल अपनी तलवार टेक कर उठ खड़ा हुआ। ममता ने कहा---"क्या आश्चर्य है कि तुम भी छल करो; ठहरो।"

"छन! नहीं, तब नहीं स्त्री! जाता हूँ, तैमूर का वंशधर स्त्री से छल करेगा? जाता हूँ। भाग्य का खेल है।"

ममता ने मन मैं कहा---"यहाँ कौन दुर्ग है! यही झोपड़ी न; जो चाहे ले ले, मुझे तो अपना कर्तव्य करना पड़ेगा।" वह बाहर चली आई और मुगल से बोली---"जाओ भीतर, थके हुए भयभीत पथिक! तुम चाहे कोई हो, मैं तुम्हें आ-

--- २३ ---