पृष्ठ:आकाश -दीप -जयशंकर प्रसाद .pdf/२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
```ममता```
 

चौसा के मुगल-पठान-युद्ध को बहुत दिन बीत गये। ममता अब सत्तर वर्ष की वृद्धा है। वह अपनी झोपड़ी में एक दिन पड़ी थी। शीतकाल का प्रभात था। उसका जीर्ण कंकाल खाँसी से गूँज रहा था। ममता की सेवा के लिये गाँव की दो-तीन स्त्रियाँ उसे घेर कर बैठी थीं; क्योंकि वह आजीवन सबके सुख-दुख की समभागिनी रही।

ममता ने जल पीना चाहा, एक स्त्री ने सीपी से जल पिलाया। सहसा एक अश्वारोही उसी झोपड़ी के द्वार पर दिखाई पड़ा। वह अपनी धुन में कहने लगा---"मिरजा ने जो चित्र बना कर दिया है, वह तो इसी जगह का होना चाहिये। वह बुढ़िया मर गई होगी, अब किससे पूछूँ कि एक दिन शाहंशाह हुमायूँ किस छप्पर के नीचे बैठे थे? यह घटना भी तो सैंतालीस वर्ष से ऊपर की हुई!"

ममता ने अपने विकल कानों से सुना। उसने पास की स्त्री से कहा---"उसे बुलाओ।"

अश्वारोही पास आया। ममता ने रुक-रुक कर कहा---"मैं नहीं जानती कि वह शाहंशाह था, या साधारण मुगल; पर एक दिन इसी झोपड़ी के नीचे वह रहा। मैंने सुना था कि वह मेरा घर बनवाने की आज्ञा दे चुका था! मैं आजीवन अपनी झोपड़ी खोदवाने के डर से भयभीत ही थी! भगवान ने सुन लिया, मैं आज इसे छोड़े जाती हूँ! अब तुम इसका मकान बनाओ या महल मैं अपने चिर-विश्राम-गृह में जाती हूँ!"

--- २५ ---