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आकाश-दीप
 

क्षणिक विश्राम। चाँदनी का निभृत रंगमंच, पुलकित वृक्ष-फूलों पर मधुमक्खियों की भन्नाहट, रह-रहकर पक्षियों के हृदय में चुभने वाली तान, मणि-दीपों पर लटकती हुई मुकुलित मालाएँ। तिस पर सौंदर्य के छूँटे हुए जोड़े——रूपवान बालक और बालिकाओं का हृदयहारी हास-विलास! संगीत की अवाध गति में छोटी-छोटी नावों पर उनका जल-विलास! किसकी आँखे यह सब देखकर भी नशे में न हो जायँगी---हृदय पागल, इंद्रियाँ विकल न हो रहेंगी! यही तो स्वर्ग है!

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झरने के तट पर बैठे हुए एक बालक ने बालिका से कहा---"मैं भूल-भूल जाता हूँ मीना, हाँ मीना मैं तुम्हें मीना नाम से कब तक पुकारूँ?"

"और मैं तुमको गुल कहकर क्यों बुलाऊँ?"

"क्यों मीना, यहाँ भी तो हम लोगों को सुख ही है। है न? अहा, क्या ही सुंदर स्थान है! हम लोग जैसे एक स्वप्न देख रहे हैं! कहीं दूसरी जगह न भेजे जायँ, तो क्या ही अच्छा हो।"

"नहीं गुल, मुझे पूर्व-स्मृति विकल कर देती है। कई बरस बीत गये---वह माता के समान दुलार, उस उपासिका की स्नेहमयी करुणा-भरी दृष्टि आँखों में कभी-कभी चुटकी काट लेती है। मुझे तो अच्छा नहीं लगता; बंदी होकर रहना तो स्वर्ग में भी......अच्छा तुम्हे यहाँ रहना नहीं खलता?"

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