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आकाश-दीप
 

"क्यों, क्या तुम मेरे साथ न चलोगे?"

इतने में एक दूसरी सुंदरी, जो कुछ पास थी, बोली---"कहाँ चलोगे गुल? मैं भी चलूँगी, उसी कुंज में। अरे देखो, वहाँ कैसा हरा-भरा अंधकार है!" गुल उसी ओर लक्ष्य करके संतरण करने लगा। बहार उसके साथ तैरने लगी। वे दोनों त्वरित गति से तैर रहे थे, मीना उनका साथ न दे सकी। वह हताश होकर और भी पिछड़ने के लिये धीरे-धीरे तैरने लगी।

बहार और गुल जल से टकराती हुई डालों को पकड़कर विश्राम करने लगे। किसी को समीप में न देखकर बहार ने गुल से कहा---"चलो, हम लोग इसी कुंज में छिप जायँ।"

वे दोनों उसी झुरमुट में विलीन हो गये।

मीना से एक दूसरी सुंदरी ने पूछा---"गुल किधर गया, तुम ने देखा?"

मीना जानकर भी अनजान बन गईं। वह दूसरे किनारे की ओर लौटती हुई बोली---"मैं नहीं जानती।"

इतने में एक विशेष संकेत से बजती हुई सीटी सुनाई पड़ी। सब तैरना छोड़कर बाहर निकले। हरा वस्त्र पहने हुए, एक गंभीर मनुष्य के साथ, एक युवक दिखाई पड़ा। युवक की आँखें नशे में रँगीली हो रही थीं; पैर लड़खड़ा रहे थे। सब ने उस प्रौढ़ को देखते ही सिर झुका लिया। वे बोल उठे---"महापुरुष, क्या कोई हमारा अतिथि आया है?"

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