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आकाश-दीप
 


प्रस्थान किया। युवक गुल के समीप आकर बैठ गया, और उसे गम्भीर दृष्टि से देखने लगा।

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गुल ने अभ्यास के अनुसार कहा---"स्वागत अतिथि!"

"तुम देवकुमार! आह! तुमको कितना खोजा मैने!"

"देवकुमार? कौन देवकुमार? हाँ, हाँ, स्मरण होता है; पर वह विषैली पृथ्वी की बात तुम क्यों स्मरण दिलाते हो? तुम मर्त्यलोक के प्राणी! भूल जाओ उस निराशा और अभावों की सृष्टि को; देखो आनन्द-निकेतन स्वर्ग का सौंदर्य!"

"देवकुमार! तुमको भूल गया, तुम भीमपल के वंशधर हो? तुम यहाँ बन्दी हो! मूर्ख हो तुम; जिसे तुमने स्वर्ग समझ रक्खा है, वह तुम्हारे आत्मविस्तार की सीमा है। मैं केवल तुम्हारे ही लिये आया हूँ।"

"तो तुमने भूल की। मैं यहाँ बड़े सुख से हूँ। बहार को बुलाऊँ, कुछ खाओ-पीओ......, कंगाल! स्वर्ग में भी आकर व्यर्थ समय नष्ट करना! संगीत सुनोगे?"

युवक हताश हो गया।

गुल ने मन में कहा---"मैं क्या करूँ? सब मुझसे रूठ जाते हैं। कहीं सहृदयता नहीं, मुझसे सब अपने मन की कराना चाहते हैं; जैसे मेरे मन नहीं है, हृदय नहीं है! प्रेम-आकर्षण! यह

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