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आकाश-दीप
 


भयानक आतंक में कॉप रहे थे। गांधार के अंतिम आर्य्य-नरपति भीमपाल के साथ ही, शाहीवंश का सौभाग्य अस्त हो गया। फिर भी उनके बचे हुए वंशधर, उद्यान के मंगली दुर्ग में, सुवास्तु की घाटियों में, पर्वत-माला, हिम और जगलो के आवरण में अपने दिन काट रहे थे। वे स्वतन्त्र थे।

"देवपाल एक साहसी राजकुमार था। वह कभी-कभी पूर्व गौरव का स्वप्न देखता हुआ, सिधु-तट तक घूमा करता। एक दिन अभिसार-प्रदेश का सिधु-वट, वासना के फूलवाले प्रभात में सौरभ की लहरों में झोंके खा रहा था। कुमारी लज्जा स्नान कर रही थी। उसका कलसा तीर पर पड़ा था। देवपाल भी कई बार पहले की तरह आज फिर साहस-भरे नेत्रों से उसे देख रहा था। उसकी चंचलता इतने ही से न रुकी, वह बोल उठा---

"उषा के इस शांत आलोक में किसी मधुर कामना से यह भिखारी हृदय हँस रहा था। और मानस-नन्दिनी! तुम इठलाती हुई बह चली हो। वाहरे तुम्हारा इतराना! इसी लिए तो जब कोई स्नान करके तुम्हारी लहर की तरह तरल और आर्द्र वस्त्र ओढ़ कर, तुम्हारे पथरीले पुलिन में फिसलता हुआ ऊपर चढ़ने लगता है, तब तुम्हारी लहरों में आँसुओं की झालरें लटकने लगती हैं। परन्तु मुझ पर दया नहीं; यह भी कोई बात है!

“तो फिर मैं क्या करूँ। उस क्षण की, उस कण की,

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