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आकाश-दीप
 

"दूसरे दिन जब धर्म-भिक्षु आये, तो उन्होंने इन आर्गतुकों को आश्चर्य से देखा, और जब पूरे समाचार सुने तो और भी उबल पड़े। उन्होने कहा---"राजकुटुम्ब को यहाँ रखकर क्या इस विहार और स्तूप को भी तुम ध्वंस कराना चाहती हो! लज्जा, तुमने यह किस प्रलोभन से किया? चँगेजखाँ बौद्ध है, संघ उसका विरोध क्यों करे?"

"स्थविर! किसी दुखों का आश्रय देना क्या गौतम के धर्म के विरुद्ध है? मैं स्पष्ट कह देना चाहती हूँ कि देवपाल ने मेरे साथ बड़ा अन्याय किया फिर भी मुझ पर उसका विश्वास था; क्यो था, मैं स्वयं नहीं जान सकी। इसे चाहे मेरी दुर्वलता हीं समझ ले; परन्तु मैं अपने प्रति विश्वास का किसी को भी दुरुपयोग नहीं करने देना चाहती। देवपाल को मैं अधिक-से-अधिक प्यार करती थी, और अब भी बिलकुल निश्शेष समझ कर उस प्रणय का तिरस्कार कर सकूँगी, इसमें सन्देह है।"---लज्जा ने कहा।

"तो तुम संघ के मूल सिद्धांत से च्युत हो रही हो, इसलिये तुम्हें भी विहार का त्याग करना पड़ेगा।"---धर्म-भिक्षु ने कहा।

"लज्जा व्यथित हो उठी थी, बालक के मुख पर देवपाल की स्पष्ट छाया उसे बार-बार उतेजित करती, और वह बालिका तो उसे छोड़ना ही न चाहती थी।

"उसने साहस करके कहा--'तब यही अच्छा होगा कि

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