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आकाश-दीप
 


कहा---"ले जाओ, इन दोनों को बन्दी करो, मैं फिर विचार करूँगा; और गुल, तुम लोगों का यह पहला अपराध है क्षमा करता हूँ। सुनती हो मीना, जाओ अपने कुञ्ज में, भागों। इन दोनों को भूल जाओ।"

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बहार ने एक दिन गुल से कहा---"चलो द्राक्षा-मण्डप में संगीत का आनन्द लिया जाय।" दोनों स्वर्गीय मदिरा में झूम रहे थे। मीना वहाँ अकेली बैठी उदासी में गा रही थी---

"वही स्वर्ग तो नरक हैं, जहाँ प्रियजन से विच्छेद है। वही रात प्रलय की है, जिसकी कालिमा में विरह का संयोग है। वह यौवन निष्फल है, जिसका हृदयवान् उपासक नहीं। वह मदिरा हलाहल है, पाप, हैं जो उन मधुर अधरों की उच्छिष्ट नहीं। वह प्रणय विषाक्त छुरी है, जिसमें कपट है। इसलिये हे जीवन, तू स्वप्न न देख, विस्मृति की निद्रा में सो जा! सुषुप्ति यदि आनन्द नहीं तो दुखों का अभाव तो है। इस जागरण से--इस आकांक्षा और अभाव के जागरण से--वह निर्द्वन्द्व सोना कहीं अच्छा है, मेरे जीवन!"

बहार का साहस न हुआ कि वह मंडप में पैर घरे, पर गुल, वह तो जैसे मूक था! एक भूल, अपराध और मनोवेदना के निर्जन कानन में भटक रहा था, यद्यपि उसके चरण निश्चल थे।

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