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हिमालय का पथिक
 

वृद्ध ने पूछा---"कहो तुम्हारा आगमन कैसे हुआ?"

पथिक---निरुद्देश्य घूम रहा हूँ; कभी राजमार्ग, कभी खड्ढ, कभी सिन्धुतट और कभी गिरि-पथ देखता-फिरता हूँ। आँखों की तृष्णा मुझे बुझती नहीं दिखाई देती। यह सब क्यों देखना चाहता हूँ, कह नहीं सकता।"

"तब भी भ्रमण कर रहे हो!"

पथिक---"हाँ, अब की इच्छा है कि हिमालय में ही विचरण करूँ। इसी के समान दूर तक चला जाऊँ!"

वृद्ध---"तुम्हारे पिता-माता हैं?"

पथिक---"नहीं।"

किन्नरी---"तभी तुम घूमते हो! मुझे तो पिताजी थोड़ी दूर भी नहीं जाने देते।"---वह हँसने लगी।

वृद्ध ने उसकी पीठपर हाथ रखकर कहा---"बड़ी पगली है!"

किन्नरी खिलखिला उठी।

पथिक---"अपरिचित देशो में एक रात रमना और फिर चल देना। मन के समान चंचल हो रहा हूँ, जैसे पैरों के नीचे चिनगारी हो!"

किन्नरी---"हम लोग तो कहीं जाते नहीं; सबसे अपरिचित हैं, कोई नहीं जानता। न कोई यहाँ आता है। हिमालय की निर्जन शिखर-श्रेणी और बर्फ की झड़ी, कस्तूरी मृग और बर्फ के चूहे, ये ही मेरे स्वजन हैं।"

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